नहीं बनना चाहता उस समाज का भाग मै
नहीं देखना चाहता उस जगह अपने आप को मै
जहाँ समाज सवारने के नाम पे
खेला जाता है हर रोज जुआं
जहाँ जनता के नौकर के नाम पे
हर रोज नौकर उडाता है मज़ा
नहीं आती है जिनको मरी हुई लाशों पर भी
राजनीति करने में कोई परेशानी
नहीं आती है जिनको गरीबों और भूखों के अनाज पे
करने में कोई मनमानी
आज न जाने क्यों यह सब देखकर
मुझे हो रही है अपनी मनुष्यता पर ग्लानि
जहाँ मनुष्य ही मनुष्य की खाल नोचने में लगे हुए हैं
जबकि जानवर कब का इंकार कर चुके हैं
क्या यही है प्रमाण हमारी उन्नति का
क्या यही है हमारी संस्कृति संस्कार का उदाहरण
इसलिए निश्चय कर चुका हूँ अब मै
नहीं बनना चाहता ऐसे समाज का भाग मै
नहीं बनना चाहता ऐसे समाज का भाग मै |
--- प्रकाश चन्द्र त्रिवेदी
रायबरेली, उत्तरप्रदेश
Saturday, May 29, 2010
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