Saturday, May 29, 2010

समाज

नहीं बनना चाहता उस समाज का भाग मै
नहीं देखना चाहता उस जगह अपने आप को मै
जहाँ समाज सवारने के नाम पे
खेला जाता है हर रोज जुआं
जहाँ जनता के नौकर के नाम पे
हर रोज नौकर उडाता है मज़ा

नहीं आती है जिनको मरी हुई लाशों पर भी
राजनीति करने में कोई परेशानी
नहीं आती है जिनको गरीबों और भूखों के अनाज पे
करने में कोई मनमानी

आज न जाने क्यों यह सब देखकर
मुझे हो रही है अपनी मनुष्यता पर ग्लानि
जहाँ मनुष्य ही मनुष्य की खाल नोचने में लगे हुए हैं
जबकि जानवर कब का इंकार कर चुके हैं

क्या यही है प्रमाण हमारी उन्नति का
क्या यही है हमारी संस्कृति संस्कार का उदाहरण
इसलिए निश्चय कर चुका हूँ अब मै
नहीं बनना चाहता ऐसे समाज का भाग मै
नहीं बनना चाहता ऐसे समाज का भाग मै |


--- प्रकाश चन्द्र त्रिवेदी
     रायबरेली, उत्तरप्रदेश

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